Tuesday, July 3, 2007

आकांक्षा

हे कृष्ण मुझे उन्माद नहीं, उर में उपजा उत्थान चाहिये
अब रास न आता रास मुझे, मुझको गीता का ज्ञान चाहिये

निर्विकार निर्वाक रहे तुम, मानवनिहित् संशयों पर
किंचित प्रश्नचिन्ह हैं अब तक, अर्धसत्य आशयों पर
कब चाह रही है सुदर्शन की, कब माँगा है कुरुक्षेत्र विजय
मैने तो तुमसे माँगा, वरदान विजय का विषयों पर

मन कलुषित न हो, विचलित न हो, ऐसा एक वरदान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये

संचित कर पाता क्या कोई, इस क्षणभंगुर से जीवन में
न देह थके न स्नेह थके, थिरकन जब तक स्पंदन में
यह प्राण गात में है जब तक, निष्पादित हो निष्काम कर्म
है चाह नहीं आराधन का, अभिमान रहे अंतर्मन में

मुझे सर्वविदित सम्मान नहीं, अंतर्मन का अभिमान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये

हो साँसों में ताकत इतनी, कि शंखनाद हर शब्द बने
हो शक्ति भुजाओं में इतनी, दुर्गम दुर्लभ उपलब्ध बने
अवलम्ब बनूँ मैं अपना ही, खोजूँ आश्रय अपने अंदर
कह सकूँ जिसे मेरी अपनी, पहचान प्रखर प्रारब्ध बने

प्रारब्ध बने पुरुषार्थ प्रबल, ऐसी मुझको पहचान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये

कर्मबोध दे दो मुझको, नभ का जल का अचलाचल का
मर्मबोध दे दो मुझको, माँ के ममतामयी आँचल का
धर्मबोध दे दो मुझको, कर लूँ धारण वस्त्रास्त्र समझ
आत्मबोध दे दो मुझको, मन के मेरे अंतस्थल का

अनुसरण नहीं, अनुकरण नहीं, अंतस्थल का अभिज्ञान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये

Wednesday, June 27, 2007

प्रणय निवेदन

हे छंद नज़्म हे चौपाई, सुन लो मेरा उद्‍गार प्रिये
तुम गीत ग़ज़ल हो या कविता, तुम ही हो मेरा प्यार प्रिये
मैं काव्यचंद्र का हूँ चकोर, मैं काव्यस्वाति का चातक हूँ
यह प्रणय निवेदन तुम मेरा, अब तो कर लो स्वीकार प्रिये

तुम मुक्तक हो उन्मुक्त कोई, या स्वरसंयोजित कोई छंद
उद्दाम लहर हो सागर की, या ठहरी-ठहरी जलप्रबंध
गाती बहलाती मन अपना, हो पिंजरबद्ध कोई पाखी
या फिर सीमाहीन गगन में, नभक्रीड़ा रत विहग वृंद

आखेट करूँ या फुसला लूँ, बोलो, क्योंकि अब तुम ही हो
मुझ जैसे आखेटक प्रेमी के, जीवन का आधार प्रिये

लिये प्रेम की पाती नभ में, ’मेघदूत’ की कृष्ण घटा सी
मयख़ारों के मन को भाई, ’मधुशाला’ की मस्त हला सी
गीतसुसज्जित कानन वन में, स्वरसुरभित चंदन के तनपर
नवकुसुमित कलियों को लेकर, लिपटी सहमी छंद लता सी

नव पाँखुरियों की मधुर गंध, छाई काव्यों के उपवन में
निज श्‍वास सुवासित करने का, दे दो मुझको अधिकार प्रिये

दिन में उजियारा फैलाया, बनकर संतों की सतबानी
संध्याकाल क्षितिज पर छाई, चौपाई की चुनरी धानी
प्रथम प्रहर लोरी बनकर, तुमने ही साथ सुलाया था
द्वितीय प्रहर तुम स्वप्नलोक में, विचरित मुक्तक मनमानी

तृतीय प्रहर चुपके से आकर, जो तुमने था छितराया
धवल-धवल शाश्‍वत शीतल, बिखरा तृण-तृण में तुषार प्रिये

कल तक इठलाती मुक्तक थी, अब खंड काव्य बनकर आई
अब चंचल बचपन बीत गया, यौवन ने ली है अंगड़ाई
चिरप्रेमी हूँ मिलना ही था, है शाश्‍वत प्रेम अमर अपना
पहना जब मौर मुकुट मैंने, दुलहन बनकर तुम इतराई

अक्षर, शब्दों, रस, भावों के, लाया आभूषण मैं कितने
उनमें से चुनकर कर लेना, तुम नित नूतन श्रंगार प्रिये

Monday, May 7, 2007

श्रद्धा समर्पण

वीरता थी अंगरखा और शौर्य जिनका अस्त्र था,
प्रखर् बुद्धि ढाल थी और आत्मबल शस्त्रास्त्र था,
भव्य भारत स्वप्न था जिनका, उन्हें यह पित्र तर्पण !
देश पर जो मर मिटे, उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !

धन्य वीरांगनायें जिनकी इतिहास स्तुति गा रहा,
गात जिनका वज्र था और हृदय कोमल अहा !
रणशिविर अट्टालिकायें, रणभूमि ही उद्यान था,
निज देश था सर्वोपरि निज भेष का न ज्ञान था,
रात्रि होती दिव्य कुंतल और दिवा फिर दिव्य दर्पण !
देश पर जो मर मिटे उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !

गणपति से ज्ञान लेकर मन से भगाया तामसी,
कृष्ण से ली कूट्नीति, धीर वीरता राम सी,
भीष्म भाँति ली प्रतिज्ञा, शिव सदृश विष को पिया,
हँसते-हँसते जन्मभूमि पर जिन्होने है किया,
तन समर्पण, मन समर्पण, और फिर जीवन समर्पण !
देश पर जो मर मिटे उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !

चाँद कहीं संग चल सकता है..!

क्यों वो रात रोज़ थी आती,
नभ पर तारे छितरा जाती !
बुत बनकर तकता रहता था -
राह तुम्हारा पलकें बिछाये,
तुम आती तो-
खो जाती थी रात की स्याही,
हो जाता हर तरफ़ उजाला !
मैं इक टुक देखा करता था -
मुखड़ा तुम्हारा एक परी सा !
साथ सुना करते थे हम तुम -
साज़ रात के सन्नाटे का,
सुर रात की खामोशी का,
गीत रात की तन्हाई का !
रखकर सर मेरे काँधे पर -
जाने क्या सोचा करती थी तुम !
मैं तो भूल चुका था खुद को -
पाकर साथ तुम्हारा तब .
स्वप्न सदृश लगता था तुम्हारा -
शब्दहीन सा सर्वसमर्पण !
और अचानक एक सुबह आई...
तारे सारे नीलगगन के -
ओझल हो गये जाने कब !
छूट गया फिर साथ तुम्हारा...
टूट गया फिर हर भ्रम मेरा...
माना साथ चला करते थे -
किसने कहा जीवनसाथी थे?
भूल गया था उन्मादों में..
जीवन की कड़वी सच्चाई -
मैं सूरज सा दग्ध-तप्त,
और तुम शाश्वत शीतल कोमल...
दिन की इस तपती गरमी में
चाँद कहीं संग चल सकता है..!

एहसास

तुम्हारा एहसास है तुम नहीं-
काश के ये तुम होती..
मैं तुम्हारी आँखों में खोया रहता,
तुम मेरी बाँहों में गुम होती..
नामुमकिन तो कुछ भी नहीं था मगर-
जाने किस गली में..
उम्मीद का सूरज खो गया,
पलकें मूँदकर सो गया,
और पीछे छोड़ गया..
एक परछाई धुंधली सी -
जो चाहकर भी गिरह में आ नहीं सकती,
और जानता हूँ वो भी मुझे पा नहीं सकती,
सिर्फ़ देखती है..
सूनी सूनी आँखों से..
शायद पानी सूख चुका है..!
वरना इन पलकों में इतना सन्नाटा कभी ना था..
अभी भी मेरे नयनों की नम कोरें..
तुम्हारे वज़ूद का एहसास दिलाती हैं...
सिर्फ़ एहसास...!

Wednesday, April 4, 2007

शुभ कामनाएँ

मुस्कुराए आपके हृदय की हर एक धड़कन,
गुनगुनाए आपकी धमनियों का हर स्पंदन,
हो प्रफुल्लित आपका हर रंध्र और हर रोम भी -
महक जाए आपका परिवार और घर-द्वार आँगन।

एक नया संगीत है - सुर ताल लय में राग में,
है नई अठखेलियाँ - फूलों की अब तो बाग में,
करने को किल्लोल आतुर बहका-बहका भ्रमर-सा मन।
मुस्कुराए आपके हृदय की हर एक धड़कन,
गुनगुनाए आपकी धमनियों का हर स्पंदन,


खिलखिलाए क्यारियाँ जीवनपुष्प यों खिलता रहे,
मन लुभाए नंदकानन रज तृण कण महका रहे,
जैसे चिरकुसुमित है चंपा, और चिरसुरभित है चंदन।
मुस्कुराए आपके हृदय की हर एक धड़कन,
गुनगुनाए आपकी धमनियों का हर स्पंदन,


हर कोई हो चिरयुवा मन से कोई अब वृद्ध ना हो,
पाखी सारे गगन चूमें कोई पिंजरबद्ध ना हो,
हर कोई उन्मुक्त हो अब ना रहे अब कोई बंधन।
मुस्कुराए आपके हृदय की हर एक धड़कन,
गुनगुनाए आपकी धमनियों का हर स्पंदन,

मौन भंग

क्षितिज बन गई सांध्य दुल्हन-
ओढ़कर के लाल आँचल,
प्राचीरों ने भाल पर-
अपने सजाया स्वर्ण सेहरा,
तुम नि:शब्द - निर्वाक हो
और मौन मैं भी,
मंद झोंके ये हवा के
कर रहे हैं कुछ इशारे,
मेघकृष्णों के हिंडोले डोलते से -
रीझती-सी बिजलियाँ कुछ कह रही हैं,
हो रहा है दृश्य यह अनुपम प्रणय का -
तुम अगर कुछ गुनगुनाओ -
तोड़ दूँगा मौन मैं भी।
तुम अगर कुछ गुनगुनाओ तोड़ दूँगा मौन मैं भी।

जयघोष

आक्रोश का सागर हृदय में-
शौर्य की अभिव्यक्ति तन पर,
बढ़ चले लेकर तिमिर में-
ज्ञानोज्वलित ज्वाला निरंतर,
राष्ट्र दीक्षा, राष्ट्र वीक्षा,
राष्ट्र रक्षा के लिए -
मृत्यु का करके वरण फिर,
हैं अमर वे वीर मर कर।

था शिला-सा वक्ष जिनका,
लौह-सी जिनकी भुजाएँ,
हुँकार से जिनकी थी कंपित,
अंबर धरा और दस दिशाएँ,
भीम-भाँति वे गदाधर,
पार्थ के से वे धनुर्धर।
मृत्यु का करके वरण फिर,
हैं अमर वे वीर मर कर।

राष्ट्र के संग्राम का जब
नाद दिग्घोषित हुआ,
हिल उठा ब्रम्हांड सारा,
काल भी विचलित हुआ,
राष्ट्र रक्षा का समर था
मृत्यु का जैसे स्वयंवर।
मृत्यु का करके वरण फिर,
हैं अमर वे वीर मर कर।

गानवी

उज्वल-उज्वल चिर पावन जल
उतरी लेकर निर्मल निर्झर!
बूँद-बूँद की श्वेत श्रृंखला
मिल जाती सतलज में आकर।

गगन तले दिख जाती सहसा
दूर कहीं से एक रेखा-सी।
झर-झर से झंकृत कर जाती
सात सुरों की सुर-कन्या-सी।

ना अथाह है, ना अपार है
ना यह यमुना, ना जाह्नवी।
प्रतिपल शीतल प्रतिपल चंचल
शक्तिदायिनी है यह गानवी।


(यह कविता मैंने गानवी जल विद्युत परियोजना, हिमाचल प्रदेश के भ्रमण के समय लिखी थी। गानवी एक सुंदर, छोटी-सी पहाड़ी नदी है जो किसी जलप्रपात की तरह सतलुज नदी में मिल जाती है। पहाड़ से कल-कल गिरती इस झरने की सुंदरता अद्वितीय है। विद्युत उत्पादन करने के कारण मैंने इसको शक्तिदायिनी कहा है।)

आह्वान

परिधि है जिसकी अपारिमित, सीमाएँ जिसकी असीमित
नाम भारतवर्ष है इस धरा के वरदान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!

ली कभी प्रचंड ज्वाला अग्रगामी मार्गदर्शक,
और कभी शीतल-सी ज्योति प्रेमप्रेरक, पथप्रदर्शक,
लौहभुज कुंदन हृदय मुख मुद्रा जिनकी लोमहर्षक,
वे बने फिर प्रबल प्रहरी राष्ट्र के अभिमान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!

संस्कृति और सभ्यता हर नर में है विकसित यहाँ,
सादगी और सौम्यता हर नारी में सुरभित यहाँ,
पश्चिमों-सा दंभ थोथा न पाओगे किंचित यहाँ,
और फिर यहाँ तो पात्र है हर एक मनुज सम्मान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!

प्रकृति पर श्रद्धा हमारी और अटल विश्वास द्विज पर,
माँ भारती के पूत हैं हम क्यों न हो फिर गर्व निज पर,
जयघोष की अनुगूँज जिसकी धरती,गगन में और क्षितिज पर,
आओ मिलकर प्रण करें इस राष्ट्र के उत्थान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!

Tuesday, April 3, 2007

इक आग लगा ली है

खोया सुकून दिल का रिश्तों को निभाने में
इक आग लगा ली है इक आग बुझाने में!

यों इम्तहान मिल तो गए हैं मंज़िलों पे मंज़िलें
दिखते नहीं हैं रास्ते अब अपने ठिकाने में!

जो आह भरा करते थे हर ज़ख़्म पे तब मेरे
उनको भी मज़ा आने लगा मुझको सताने में!

लगता गुनाह-सा है ये इश्क़-ओ-इबादत भी
इक शर्म-सी आती है अब आँख मिलाने में!

इक जाम मयस्सर ना था, थे क़तरों के भी फाके
शब-ओ-शाम गुज़रती है अब पीने-पिलाने में!

धड़कन नहीं क्यों बढ़ती अब तेरी सदा सुनके
मामूली तक़ल्लुफ़-सा है क्यों तेरे बुलाने में!

ख़ुशियों के कद्रदानों मुझको मुआफ़ करना
कुछ दर्द-सा आने लगा है मेरे तराने में!

Friday, March 30, 2007

अभिनंदन

स्नेह सुरभित श्रंखला में है स्वागत स्नेह वंदन से !
आओ कुछ परिचय करा दूँ मेरे हृदय के स्पंदन से !