Monday, May 7, 2007

श्रद्धा समर्पण

वीरता थी अंगरखा और शौर्य जिनका अस्त्र था,
प्रखर् बुद्धि ढाल थी और आत्मबल शस्त्रास्त्र था,
भव्य भारत स्वप्न था जिनका, उन्हें यह पित्र तर्पण !
देश पर जो मर मिटे, उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !

धन्य वीरांगनायें जिनकी इतिहास स्तुति गा रहा,
गात जिनका वज्र था और हृदय कोमल अहा !
रणशिविर अट्टालिकायें, रणभूमि ही उद्यान था,
निज देश था सर्वोपरि निज भेष का न ज्ञान था,
रात्रि होती दिव्य कुंतल और दिवा फिर दिव्य दर्पण !
देश पर जो मर मिटे उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !

गणपति से ज्ञान लेकर मन से भगाया तामसी,
कृष्ण से ली कूट्नीति, धीर वीरता राम सी,
भीष्म भाँति ली प्रतिज्ञा, शिव सदृश विष को पिया,
हँसते-हँसते जन्मभूमि पर जिन्होने है किया,
तन समर्पण, मन समर्पण, और फिर जीवन समर्पण !
देश पर जो मर मिटे उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !

5 comments:

Jitendra Chaudhary said...

हिन्दी ब्लॉगिंग मे आपका स्वागत है। आप अपना ब्लॉग नारद पर रजिस्टर करवाएं। नारद पर आपको हिन्दी चिट्ठों की पूरी जानकारी मिलेगी।

Kamlesh Nahata said...

veer ras ke saath saath - shrawaq ke uttam bhav!!!
kavita bahut prabal hai.

Likhte rahiye

- नीरव

ePandit said...

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है। नियमित लेखन हेतु मेरी तरफ से शुभकामनाएं।

नए चिट्ठाकारों के स्वागत पृष्ठ पर अवश्य जाएं।

किसी भी प्रकार की समस्या आने पर हम आपसे सिर्फ़ एक इमेल की दूरी पर है।

ई-पंडित

Kavi Kulwant said...

बहुत अच्छी कविता एवं भाव, साथ ही अच्छा प्रवाह.. कम हि देखने को मिलता है। बधाई।
बंगलूर आने पर अवश्य ही मिलना चाहूंगा।
कवि कुलवंत

दिनेश पारते said...

कुलवंत जी और कमलेश जी,

उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद ।
ब्लॉगिंग में नियमित न रहने के लिये क्षमा चाहता हूँ । आप लोगों के ब्लॉग्स भी देखे, समय निकालकर कुछ अवश्य लिखूँगा ।
सादर
-
दिनेश