Monday, May 7, 2007

एहसास

तुम्हारा एहसास है तुम नहीं-
काश के ये तुम होती..
मैं तुम्हारी आँखों में खोया रहता,
तुम मेरी बाँहों में गुम होती..
नामुमकिन तो कुछ भी नहीं था मगर-
जाने किस गली में..
उम्मीद का सूरज खो गया,
पलकें मूँदकर सो गया,
और पीछे छोड़ गया..
एक परछाई धुंधली सी -
जो चाहकर भी गिरह में आ नहीं सकती,
और जानता हूँ वो भी मुझे पा नहीं सकती,
सिर्फ़ देखती है..
सूनी सूनी आँखों से..
शायद पानी सूख चुका है..!
वरना इन पलकों में इतना सन्नाटा कभी ना था..
अभी भी मेरे नयनों की नम कोरें..
तुम्हारे वज़ूद का एहसास दिलाती हैं...
सिर्फ़ एहसास...!

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