Thursday, April 5, 2012

उत्साहगीत

आँधियों में है शिविर, कि व्योम ही वितान है ।

नवीन पंख हैं मेरे, नयी मेरी उड़ान है ॥


यहाँ चले वहाँ चले कदम मेरे जहाँ चले,

कि साथ ये ज़मीं चले कि संग आसमां चले ।

चलूँ जिधर चला चले ये दिग-दिगंत भी उधर,

निशान ढूंढते हुये तमाम कारवां चले ॥


न दीखता ही पीर है, न चाहिये ही नीर है,

किसे लगी है प्यास अब किसे यहाँ थकान है ॥


विचारता नहीं बहुत जो कस लिया कभी कमर,

निकल पड़ा कहीं अगर नहीं फ़िकर नहीं खबर ।

रुकूँ नहीं थकूँ नहीं हों चाहे जो भी मुश्किलें,

भले कठिन हों रासते या कंटकों भरी डगर ॥


रुके न चाहे वेदना, झुके कभी न चेतना

ये दंश कष्ट राह के प्रवाद के समान है ॥


मिले जो चिह्न मार्ग में यथेष्ट हैं मुझे वही,

समय न मिल सका कि मैं टटोलता ग़लत सही ।

पड़ाव है नहीं कहीं न लक्ष्य है कहीं मेरा,

नहीं अगर ये सभ्यता तो मैं सही असभ्य ही ॥


उदात्त भावना नहीं, अभीष्ट कामना नहीं

सुफल मिले या ना मिले सुकर्म में रुझान है ॥


चाहता हूँ सूर्य को मैं बाँग दे पुकार लूँ,

दिन ढले तो चाँद को ज़मीन पर उतार लूँ ।

मन कहे दिशाओं से मैं भीत माँग लूँ कभी,

और कभी हवाओं से स्वतंत्रता उधार लूँ ॥


नींद स्वप्न त्यागकर, मन वचन से जागकर

सत्व को जगा सकूँ वही मेरा बिहान है ॥

Friday, July 11, 2008

प्रेम, विरह और प्रकृति

फिर आशाओं की हुई भोर
फिर उम्मीदों की थाम डोर
नन्ही सी किरन
चूमे है गगन
फिर बह निकली पुरवाई है

ज्यों पंछी उड़ निकले स्वच्छंद
ज्यों गायों के खुल गये बंध
तोड़े बंधन
ये पागलमन
सूरज ने ली अँगड़ाई है

काली अँधियारी रैन कहाँ
हैं नींद भरे अब नैन कहाँ
सखियाँ मचलीं घर से निकलीं
फिर चंचल मन को चैन कहाँ
लो सनन-सनन
चल पड़ी पवन
खुद ही जैसे पगलाई है

इठलाते चंचल छौने थे
मनभावन सपन-सलौने थे
कुछ टूट गये कुछ छूट गये
जो प्यारे खेल खिलौने थे
बीता बचपन
आया यौवन
चितवन ने ली अंगड़ाई है

मन भीगा है तन भी पुलकित
संकोच या सोच नहीं किंचित
न विकार कहीं, न विषाद कहीं
यह देख हुईं सखियाँ विस्मित
जब भी दुल्हन
देखे दरपन
मन ही मन क्यों इतराई है

यादों का भी अवलम्ब नहीं
मन को भाये ये विलंब नहीं
प्रिय से मिलने जो लगी खिलने
क्यों रात्रि हुई आरंभ नहीं
तन में थिरकन
उर में धड़कन
गालों में कुछ अरुणाई है

नैनों में हर्ष विषाद नहीं
स्पंदन में उन्माद नहीं
है कंठ निशब्द गिरा निस्तब्ध
वाणी में तनिक निनाद नहीं
सूना आँगन
बैरी साजन
ये कैसी प्रीत निभाई है

Tuesday, July 3, 2007

आकांक्षा

हे कृष्ण मुझे उन्माद नहीं, उर में उपजा उत्थान चाहिये
अब रास न आता रास मुझे, मुझको गीता का ज्ञान चाहिये

निर्विकार निर्वाक रहे तुम, मानवनिहित् संशयों पर
किंचित प्रश्नचिन्ह हैं अब तक, अर्धसत्य आशयों पर
कब चाह रही है सुदर्शन की, कब माँगा है कुरुक्षेत्र विजय
मैने तो तुमसे माँगा, वरदान विजय का विषयों पर

मन कलुषित न हो, विचलित न हो, ऐसा एक वरदान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये

संचित कर पाता क्या कोई, इस क्षणभंगुर से जीवन में
न देह थके न स्नेह थके, थिरकन जब तक स्पंदन में
यह प्राण गात में है जब तक, निष्पादित हो निष्काम कर्म
है चाह नहीं आराधन का, अभिमान रहे अंतर्मन में

मुझे सर्वविदित सम्मान नहीं, अंतर्मन का अभिमान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये

हो साँसों में ताकत इतनी, कि शंखनाद हर शब्द बने
हो शक्ति भुजाओं में इतनी, दुर्गम दुर्लभ उपलब्ध बने
अवलम्ब बनूँ मैं अपना ही, खोजूँ आश्रय अपने अंदर
कह सकूँ जिसे मेरी अपनी, पहचान प्रखर प्रारब्ध बने

प्रारब्ध बने पुरुषार्थ प्रबल, ऐसी मुझको पहचान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये

कर्मबोध दे दो मुझको, नभ का जल का अचलाचल का
मर्मबोध दे दो मुझको, माँ के ममतामयी आँचल का
धर्मबोध दे दो मुझको, कर लूँ धारण वस्त्रास्त्र समझ
आत्मबोध दे दो मुझको, मन के मेरे अंतस्थल का

अनुसरण नहीं, अनुकरण नहीं, अंतस्थल का अभिज्ञान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये

Wednesday, June 27, 2007

प्रणय निवेदन

हे छंद नज़्म हे चौपाई, सुन लो मेरा उद्‍गार प्रिये
तुम गीत ग़ज़ल हो या कविता, तुम ही हो मेरा प्यार प्रिये
मैं काव्यचंद्र का हूँ चकोर, मैं काव्यस्वाति का चातक हूँ
यह प्रणय निवेदन तुम मेरा, अब तो कर लो स्वीकार प्रिये

तुम मुक्तक हो उन्मुक्त कोई, या स्वरसंयोजित कोई छंद
उद्दाम लहर हो सागर की, या ठहरी-ठहरी जलप्रबंध
गाती बहलाती मन अपना, हो पिंजरबद्ध कोई पाखी
या फिर सीमाहीन गगन में, नभक्रीड़ा रत विहग वृंद

आखेट करूँ या फुसला लूँ, बोलो, क्योंकि अब तुम ही हो
मुझ जैसे आखेटक प्रेमी के, जीवन का आधार प्रिये

लिये प्रेम की पाती नभ में, ’मेघदूत’ की कृष्ण घटा सी
मयख़ारों के मन को भाई, ’मधुशाला’ की मस्त हला सी
गीतसुसज्जित कानन वन में, स्वरसुरभित चंदन के तनपर
नवकुसुमित कलियों को लेकर, लिपटी सहमी छंद लता सी

नव पाँखुरियों की मधुर गंध, छाई काव्यों के उपवन में
निज श्‍वास सुवासित करने का, दे दो मुझको अधिकार प्रिये

दिन में उजियारा फैलाया, बनकर संतों की सतबानी
संध्याकाल क्षितिज पर छाई, चौपाई की चुनरी धानी
प्रथम प्रहर लोरी बनकर, तुमने ही साथ सुलाया था
द्वितीय प्रहर तुम स्वप्नलोक में, विचरित मुक्तक मनमानी

तृतीय प्रहर चुपके से आकर, जो तुमने था छितराया
धवल-धवल शाश्‍वत शीतल, बिखरा तृण-तृण में तुषार प्रिये

कल तक इठलाती मुक्तक थी, अब खंड काव्य बनकर आई
अब चंचल बचपन बीत गया, यौवन ने ली है अंगड़ाई
चिरप्रेमी हूँ मिलना ही था, है शाश्‍वत प्रेम अमर अपना
पहना जब मौर मुकुट मैंने, दुलहन बनकर तुम इतराई

अक्षर, शब्दों, रस, भावों के, लाया आभूषण मैं कितने
उनमें से चुनकर कर लेना, तुम नित नूतन श्रंगार प्रिये

Monday, May 7, 2007

श्रद्धा समर्पण

वीरता थी अंगरखा और शौर्य जिनका अस्त्र था,
प्रखर् बुद्धि ढाल थी और आत्मबल शस्त्रास्त्र था,
भव्य भारत स्वप्न था जिनका, उन्हें यह पित्र तर्पण !
देश पर जो मर मिटे, उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !

धन्य वीरांगनायें जिनकी इतिहास स्तुति गा रहा,
गात जिनका वज्र था और हृदय कोमल अहा !
रणशिविर अट्टालिकायें, रणभूमि ही उद्यान था,
निज देश था सर्वोपरि निज भेष का न ज्ञान था,
रात्रि होती दिव्य कुंतल और दिवा फिर दिव्य दर्पण !
देश पर जो मर मिटे उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !

गणपति से ज्ञान लेकर मन से भगाया तामसी,
कृष्ण से ली कूट्नीति, धीर वीरता राम सी,
भीष्म भाँति ली प्रतिज्ञा, शिव सदृश विष को पिया,
हँसते-हँसते जन्मभूमि पर जिन्होने है किया,
तन समर्पण, मन समर्पण, और फिर जीवन समर्पण !
देश पर जो मर मिटे उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !

चाँद कहीं संग चल सकता है..!

क्यों वो रात रोज़ थी आती,
नभ पर तारे छितरा जाती !
बुत बनकर तकता रहता था -
राह तुम्हारा पलकें बिछाये,
तुम आती तो-
खो जाती थी रात की स्याही,
हो जाता हर तरफ़ उजाला !
मैं इक टुक देखा करता था -
मुखड़ा तुम्हारा एक परी सा !
साथ सुना करते थे हम तुम -
साज़ रात के सन्नाटे का,
सुर रात की खामोशी का,
गीत रात की तन्हाई का !
रखकर सर मेरे काँधे पर -
जाने क्या सोचा करती थी तुम !
मैं तो भूल चुका था खुद को -
पाकर साथ तुम्हारा तब .
स्वप्न सदृश लगता था तुम्हारा -
शब्दहीन सा सर्वसमर्पण !
और अचानक एक सुबह आई...
तारे सारे नीलगगन के -
ओझल हो गये जाने कब !
छूट गया फिर साथ तुम्हारा...
टूट गया फिर हर भ्रम मेरा...
माना साथ चला करते थे -
किसने कहा जीवनसाथी थे?
भूल गया था उन्मादों में..
जीवन की कड़वी सच्चाई -
मैं सूरज सा दग्ध-तप्त,
और तुम शाश्वत शीतल कोमल...
दिन की इस तपती गरमी में
चाँद कहीं संग चल सकता है..!

एहसास

तुम्हारा एहसास है तुम नहीं-
काश के ये तुम होती..
मैं तुम्हारी आँखों में खोया रहता,
तुम मेरी बाँहों में गुम होती..
नामुमकिन तो कुछ भी नहीं था मगर-
जाने किस गली में..
उम्मीद का सूरज खो गया,
पलकें मूँदकर सो गया,
और पीछे छोड़ गया..
एक परछाई धुंधली सी -
जो चाहकर भी गिरह में आ नहीं सकती,
और जानता हूँ वो भी मुझे पा नहीं सकती,
सिर्फ़ देखती है..
सूनी सूनी आँखों से..
शायद पानी सूख चुका है..!
वरना इन पलकों में इतना सन्नाटा कभी ना था..
अभी भी मेरे नयनों की नम कोरें..
तुम्हारे वज़ूद का एहसास दिलाती हैं...
सिर्फ़ एहसास...!