Friday, July 11, 2008

प्रेम, विरह और प्रकृति

फिर आशाओं की हुई भोर
फिर उम्मीदों की थाम डोर
नन्ही सी किरन
चूमे है गगन
फिर बह निकली पुरवाई है

ज्यों पंछी उड़ निकले स्वच्छंद
ज्यों गायों के खुल गये बंध
तोड़े बंधन
ये पागलमन
सूरज ने ली अँगड़ाई है

काली अँधियारी रैन कहाँ
हैं नींद भरे अब नैन कहाँ
सखियाँ मचलीं घर से निकलीं
फिर चंचल मन को चैन कहाँ
लो सनन-सनन
चल पड़ी पवन
खुद ही जैसे पगलाई है

इठलाते चंचल छौने थे
मनभावन सपन-सलौने थे
कुछ टूट गये कुछ छूट गये
जो प्यारे खेल खिलौने थे
बीता बचपन
आया यौवन
चितवन ने ली अंगड़ाई है

मन भीगा है तन भी पुलकित
संकोच या सोच नहीं किंचित
न विकार कहीं, न विषाद कहीं
यह देख हुईं सखियाँ विस्मित
जब भी दुल्हन
देखे दरपन
मन ही मन क्यों इतराई है

यादों का भी अवलम्ब नहीं
मन को भाये ये विलंब नहीं
प्रिय से मिलने जो लगी खिलने
क्यों रात्रि हुई आरंभ नहीं
तन में थिरकन
उर में धड़कन
गालों में कुछ अरुणाई है

नैनों में हर्ष विषाद नहीं
स्पंदन में उन्माद नहीं
है कंठ निशब्द गिरा निस्तब्ध
वाणी में तनिक निनाद नहीं
सूना आँगन
बैरी साजन
ये कैसी प्रीत निभाई है