Wednesday, April 4, 2007

मौन भंग

क्षितिज बन गई सांध्य दुल्हन-
ओढ़कर के लाल आँचल,
प्राचीरों ने भाल पर-
अपने सजाया स्वर्ण सेहरा,
तुम नि:शब्द - निर्वाक हो
और मौन मैं भी,
मंद झोंके ये हवा के
कर रहे हैं कुछ इशारे,
मेघकृष्णों के हिंडोले डोलते से -
रीझती-सी बिजलियाँ कुछ कह रही हैं,
हो रहा है दृश्य यह अनुपम प्रणय का -
तुम अगर कुछ गुनगुनाओ -
तोड़ दूँगा मौन मैं भी।
तुम अगर कुछ गुनगुनाओ तोड़ दूँगा मौन मैं भी।

No comments: