हे कृष्ण मुझे उन्माद नहीं, उर में उपजा उत्थान चाहिये
अब रास न आता रास मुझे, मुझको गीता का ज्ञान चाहिये
निर्विकार निर्वाक रहे तुम, मानवनिहित् संशयों पर
किंचित प्रश्नचिन्ह हैं अब तक, अर्धसत्य आशयों पर
कब चाह रही है सुदर्शन की, कब माँगा है कुरुक्षेत्र विजय
मैने तो तुमसे माँगा, वरदान विजय का विषयों पर
मन कलुषित न हो, विचलित न हो, ऐसा एक वरदान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये
संचित कर पाता क्या कोई, इस क्षणभंगुर से जीवन में
न देह थके न स्नेह थके, थिरकन जब तक स्पंदन में
यह प्राण गात में है जब तक, निष्पादित हो निष्काम कर्म
है चाह नहीं आराधन का, अभिमान रहे अंतर्मन में
मुझे सर्वविदित सम्मान नहीं, अंतर्मन का अभिमान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये
हो साँसों में ताकत इतनी, कि शंखनाद हर शब्द बने
हो शक्ति भुजाओं में इतनी, दुर्गम दुर्लभ उपलब्ध बने
अवलम्ब बनूँ मैं अपना ही, खोजूँ आश्रय अपने अंदर
कह सकूँ जिसे मेरी अपनी, पहचान प्रखर प्रारब्ध बने
प्रारब्ध बने पुरुषार्थ प्रबल, ऐसी मुझको पहचान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये
कर्मबोध दे दो मुझको, नभ का जल का अचलाचल का
मर्मबोध दे दो मुझको, माँ के ममतामयी आँचल का
धर्मबोध दे दो मुझको, कर लूँ धारण वस्त्रास्त्र समझ
आत्मबोध दे दो मुझको, मन के मेरे अंतस्थल का
अनुसरण नहीं, अनुकरण नहीं, अंतस्थल का अभिज्ञान चाहिये
मुझको गीता का ज्ञान चाहिये
3 comments:
अच्छा लगा पढ़कर यह रचना.
waaah!
maja aa gaya padhkar.
badhaai.
very well done...da-vinci is great as ever..
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