Monday, May 7, 2007

चाँद कहीं संग चल सकता है..!

क्यों वो रात रोज़ थी आती,
नभ पर तारे छितरा जाती !
बुत बनकर तकता रहता था -
राह तुम्हारा पलकें बिछाये,
तुम आती तो-
खो जाती थी रात की स्याही,
हो जाता हर तरफ़ उजाला !
मैं इक टुक देखा करता था -
मुखड़ा तुम्हारा एक परी सा !
साथ सुना करते थे हम तुम -
साज़ रात के सन्नाटे का,
सुर रात की खामोशी का,
गीत रात की तन्हाई का !
रखकर सर मेरे काँधे पर -
जाने क्या सोचा करती थी तुम !
मैं तो भूल चुका था खुद को -
पाकर साथ तुम्हारा तब .
स्वप्न सदृश लगता था तुम्हारा -
शब्दहीन सा सर्वसमर्पण !
और अचानक एक सुबह आई...
तारे सारे नीलगगन के -
ओझल हो गये जाने कब !
छूट गया फिर साथ तुम्हारा...
टूट गया फिर हर भ्रम मेरा...
माना साथ चला करते थे -
किसने कहा जीवनसाथी थे?
भूल गया था उन्मादों में..
जीवन की कड़वी सच्चाई -
मैं सूरज सा दग्ध-तप्त,
और तुम शाश्वत शीतल कोमल...
दिन की इस तपती गरमी में
चाँद कहीं संग चल सकता है..!

2 comments:

Kavi Kulwant said...

आप तो दिनेश जी बहुत अच्छा लिखते हैं। मैं पहली बार आपके ब्लोग पर आया हूँ। हार्दिक बधाई।
कवि कुलवंत

दिनेश पारते said...

धन्यवाद कुलवंत जी,

अतिव्यस्तता के कारण आपसे न मिल पाने का मलाल सा रह गया,
वरना खूब जमती जब मिल बैठते दीवाने दो