क्यों वो रात रोज़ थी आती,
नभ पर तारे छितरा जाती !
बुत बनकर तकता रहता था -
राह तुम्हारा पलकें बिछाये,
तुम आती तो-
खो जाती थी रात की स्याही,
हो जाता हर तरफ़ उजाला !
मैं इक टुक देखा करता था -
मुखड़ा तुम्हारा एक परी सा !
साथ सुना करते थे हम तुम -
साज़ रात के सन्नाटे का,
सुर रात की खामोशी का,
गीत रात की तन्हाई का !
रखकर सर मेरे काँधे पर -
जाने क्या सोचा करती थी तुम !
मैं तो भूल चुका था खुद को -
पाकर साथ तुम्हारा तब .
स्वप्न सदृश लगता था तुम्हारा -
शब्दहीन सा सर्वसमर्पण !
और अचानक एक सुबह आई...
तारे सारे नीलगगन के -
ओझल हो गये जाने कब !
छूट गया फिर साथ तुम्हारा...
टूट गया फिर हर भ्रम मेरा...
माना साथ चला करते थे -
किसने कहा जीवनसाथी थे?
भूल गया था उन्मादों में..
जीवन की कड़वी सच्चाई -
मैं सूरज सा दग्ध-तप्त,
और तुम शाश्वत शीतल कोमल...
दिन की इस तपती गरमी में
चाँद कहीं संग चल सकता है..!
2 comments:
आप तो दिनेश जी बहुत अच्छा लिखते हैं। मैं पहली बार आपके ब्लोग पर आया हूँ। हार्दिक बधाई।
कवि कुलवंत
धन्यवाद कुलवंत जी,
अतिव्यस्तता के कारण आपसे न मिल पाने का मलाल सा रह गया,
वरना खूब जमती जब मिल बैठते दीवाने दो
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