मुस्कुराए आपके हृदय की हर एक धड़कन,
गुनगुनाए आपकी धमनियों का हर स्पंदन,
हो प्रफुल्लित आपका हर रंध्र और हर रोम भी -
महक जाए आपका परिवार और घर-द्वार आँगन।
एक नया संगीत है - सुर ताल लय में राग में,
है नई अठखेलियाँ - फूलों की अब तो बाग में,
करने को किल्लोल आतुर बहका-बहका भ्रमर-सा मन।
मुस्कुराए आपके हृदय की हर एक धड़कन,
गुनगुनाए आपकी धमनियों का हर स्पंदन,
खिलखिलाए क्यारियाँ जीवनपुष्प यों खिलता रहे,
मन लुभाए नंदकानन रज तृण कण महका रहे,
जैसे चिरकुसुमित है चंपा, और चिरसुरभित है चंदन।
मुस्कुराए आपके हृदय की हर एक धड़कन,
गुनगुनाए आपकी धमनियों का हर स्पंदन,
हर कोई हो चिरयुवा मन से कोई अब वृद्ध ना हो,
पाखी सारे गगन चूमें कोई पिंजरबद्ध ना हो,
हर कोई उन्मुक्त हो अब ना रहे अब कोई बंधन।
मुस्कुराए आपके हृदय की हर एक धड़कन,
गुनगुनाए आपकी धमनियों का हर स्पंदन,
स्नेह सुरभित श्रंखला में है स्वागत स्नेह वंदन से.. आओ कुछ परिचय करा दूँ मेरे हृदय के स्पंदन से..!
Wednesday, April 4, 2007
मौन भंग
क्षितिज बन गई सांध्य दुल्हन-
ओढ़कर के लाल आँचल,
प्राचीरों ने भाल पर-
अपने सजाया स्वर्ण सेहरा,
तुम नि:शब्द - निर्वाक हो
और मौन मैं भी,
मंद झोंके ये हवा के
कर रहे हैं कुछ इशारे,
मेघकृष्णों के हिंडोले डोलते से -
रीझती-सी बिजलियाँ कुछ कह रही हैं,
हो रहा है दृश्य यह अनुपम प्रणय का -
तुम अगर कुछ गुनगुनाओ -
तोड़ दूँगा मौन मैं भी।
तुम अगर कुछ गुनगुनाओ तोड़ दूँगा मौन मैं भी।
ओढ़कर के लाल आँचल,
प्राचीरों ने भाल पर-
अपने सजाया स्वर्ण सेहरा,
तुम नि:शब्द - निर्वाक हो
और मौन मैं भी,
मंद झोंके ये हवा के
कर रहे हैं कुछ इशारे,
मेघकृष्णों के हिंडोले डोलते से -
रीझती-सी बिजलियाँ कुछ कह रही हैं,
हो रहा है दृश्य यह अनुपम प्रणय का -
तुम अगर कुछ गुनगुनाओ -
तोड़ दूँगा मौन मैं भी।
तुम अगर कुछ गुनगुनाओ तोड़ दूँगा मौन मैं भी।
जयघोष
आक्रोश का सागर हृदय में-
शौर्य की अभिव्यक्ति तन पर,
बढ़ चले लेकर तिमिर में-
ज्ञानोज्वलित ज्वाला निरंतर,
राष्ट्र दीक्षा, राष्ट्र वीक्षा,
राष्ट्र रक्षा के लिए -
मृत्यु का करके वरण फिर,
हैं अमर वे वीर मर कर।
था शिला-सा वक्ष जिनका,
लौह-सी जिनकी भुजाएँ,
हुँकार से जिनकी थी कंपित,
अंबर धरा और दस दिशाएँ,
भीम-भाँति वे गदाधर,
पार्थ के से वे धनुर्धर।
मृत्यु का करके वरण फिर,
हैं अमर वे वीर मर कर।
राष्ट्र के संग्राम का जब
नाद दिग्घोषित हुआ,
हिल उठा ब्रम्हांड सारा,
काल भी विचलित हुआ,
राष्ट्र रक्षा का समर था
मृत्यु का जैसे स्वयंवर।
मृत्यु का करके वरण फिर,
हैं अमर वे वीर मर कर।
शौर्य की अभिव्यक्ति तन पर,
बढ़ चले लेकर तिमिर में-
ज्ञानोज्वलित ज्वाला निरंतर,
राष्ट्र दीक्षा, राष्ट्र वीक्षा,
राष्ट्र रक्षा के लिए -
मृत्यु का करके वरण फिर,
हैं अमर वे वीर मर कर।
था शिला-सा वक्ष जिनका,
लौह-सी जिनकी भुजाएँ,
हुँकार से जिनकी थी कंपित,
अंबर धरा और दस दिशाएँ,
भीम-भाँति वे गदाधर,
पार्थ के से वे धनुर्धर।
मृत्यु का करके वरण फिर,
हैं अमर वे वीर मर कर।
राष्ट्र के संग्राम का जब
नाद दिग्घोषित हुआ,
हिल उठा ब्रम्हांड सारा,
काल भी विचलित हुआ,
राष्ट्र रक्षा का समर था
मृत्यु का जैसे स्वयंवर।
मृत्यु का करके वरण फिर,
हैं अमर वे वीर मर कर।
गानवी
उज्वल-उज्वल चिर पावन जल
उतरी लेकर निर्मल निर्झर!
बूँद-बूँद की श्वेत श्रृंखला
मिल जाती सतलज में आकर।
गगन तले दिख जाती सहसा
दूर कहीं से एक रेखा-सी।
झर-झर से झंकृत कर जाती
सात सुरों की सुर-कन्या-सी।
ना अथाह है, ना अपार है
ना यह यमुना, ना जाह्नवी।
प्रतिपल शीतल प्रतिपल चंचल
शक्तिदायिनी है यह गानवी।
(यह कविता मैंने गानवी जल विद्युत परियोजना, हिमाचल प्रदेश के भ्रमण के समय लिखी थी। गानवी एक सुंदर, छोटी-सी पहाड़ी नदी है जो किसी जलप्रपात की तरह सतलुज नदी में मिल जाती है। पहाड़ से कल-कल गिरती इस झरने की सुंदरता अद्वितीय है। विद्युत उत्पादन करने के कारण मैंने इसको शक्तिदायिनी कहा है।)
उतरी लेकर निर्मल निर्झर!
बूँद-बूँद की श्वेत श्रृंखला
मिल जाती सतलज में आकर।
गगन तले दिख जाती सहसा
दूर कहीं से एक रेखा-सी।
झर-झर से झंकृत कर जाती
सात सुरों की सुर-कन्या-सी।
ना अथाह है, ना अपार है
ना यह यमुना, ना जाह्नवी।
प्रतिपल शीतल प्रतिपल चंचल
शक्तिदायिनी है यह गानवी।
(यह कविता मैंने गानवी जल विद्युत परियोजना, हिमाचल प्रदेश के भ्रमण के समय लिखी थी। गानवी एक सुंदर, छोटी-सी पहाड़ी नदी है जो किसी जलप्रपात की तरह सतलुज नदी में मिल जाती है। पहाड़ से कल-कल गिरती इस झरने की सुंदरता अद्वितीय है। विद्युत उत्पादन करने के कारण मैंने इसको शक्तिदायिनी कहा है।)
आह्वान
परिधि है जिसकी अपारिमित, सीमाएँ जिसकी असीमित
नाम भारतवर्ष है इस धरा के वरदान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!
ली कभी प्रचंड ज्वाला अग्रगामी मार्गदर्शक,
और कभी शीतल-सी ज्योति प्रेमप्रेरक, पथप्रदर्शक,
लौहभुज कुंदन हृदय मुख मुद्रा जिनकी लोमहर्षक,
वे बने फिर प्रबल प्रहरी राष्ट्र के अभिमान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!
संस्कृति और सभ्यता हर नर में है विकसित यहाँ,
सादगी और सौम्यता हर नारी में सुरभित यहाँ,
पश्चिमों-सा दंभ थोथा न पाओगे किंचित यहाँ,
और फिर यहाँ तो पात्र है हर एक मनुज सम्मान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!
प्रकृति पर श्रद्धा हमारी और अटल विश्वास द्विज पर,
माँ भारती के पूत हैं हम क्यों न हो फिर गर्व निज पर,
जयघोष की अनुगूँज जिसकी धरती,गगन में और क्षितिज पर,
आओ मिलकर प्रण करें इस राष्ट्र के उत्थान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!
नाम भारतवर्ष है इस धरा के वरदान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!
ली कभी प्रचंड ज्वाला अग्रगामी मार्गदर्शक,
और कभी शीतल-सी ज्योति प्रेमप्रेरक, पथप्रदर्शक,
लौहभुज कुंदन हृदय मुख मुद्रा जिनकी लोमहर्षक,
वे बने फिर प्रबल प्रहरी राष्ट्र के अभिमान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!
संस्कृति और सभ्यता हर नर में है विकसित यहाँ,
सादगी और सौम्यता हर नारी में सुरभित यहाँ,
पश्चिमों-सा दंभ थोथा न पाओगे किंचित यहाँ,
और फिर यहाँ तो पात्र है हर एक मनुज सम्मान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!
प्रकृति पर श्रद्धा हमारी और अटल विश्वास द्विज पर,
माँ भारती के पूत हैं हम क्यों न हो फिर गर्व निज पर,
जयघोष की अनुगूँज जिसकी धरती,गगन में और क्षितिज पर,
आओ मिलकर प्रण करें इस राष्ट्र के उत्थान का!
प्रतिध्वनित हो हर दिशा में गीत गौरवगान का!
Tuesday, April 3, 2007
इक आग लगा ली है
खोया सुकून दिल का रिश्तों को निभाने में
इक आग लगा ली है इक आग बुझाने में!
यों इम्तहान मिल तो गए हैं मंज़िलों पे मंज़िलें
दिखते नहीं हैं रास्ते अब अपने ठिकाने में!
जो आह भरा करते थे हर ज़ख़्म पे तब मेरे
उनको भी मज़ा आने लगा मुझको सताने में!
लगता गुनाह-सा है ये इश्क़-ओ-इबादत भी
इक शर्म-सी आती है अब आँख मिलाने में!
इक जाम मयस्सर ना था, थे क़तरों के भी फाके
शब-ओ-शाम गुज़रती है अब पीने-पिलाने में!
धड़कन नहीं क्यों बढ़ती अब तेरी सदा सुनके
मामूली तक़ल्लुफ़-सा है क्यों तेरे बुलाने में!
ख़ुशियों के कद्रदानों मुझको मुआफ़ करना
कुछ दर्द-सा आने लगा है मेरे तराने में!
इक आग लगा ली है इक आग बुझाने में!
यों इम्तहान मिल तो गए हैं मंज़िलों पे मंज़िलें
दिखते नहीं हैं रास्ते अब अपने ठिकाने में!
जो आह भरा करते थे हर ज़ख़्म पे तब मेरे
उनको भी मज़ा आने लगा मुझको सताने में!
लगता गुनाह-सा है ये इश्क़-ओ-इबादत भी
इक शर्म-सी आती है अब आँख मिलाने में!
इक जाम मयस्सर ना था, थे क़तरों के भी फाके
शब-ओ-शाम गुज़रती है अब पीने-पिलाने में!
धड़कन नहीं क्यों बढ़ती अब तेरी सदा सुनके
मामूली तक़ल्लुफ़-सा है क्यों तेरे बुलाने में!
ख़ुशियों के कद्रदानों मुझको मुआफ़ करना
कुछ दर्द-सा आने लगा है मेरे तराने में!
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