वीरता थी अंगरखा और शौर्य जिनका अस्त्र था,
प्रखर् बुद्धि ढाल थी और आत्मबल शस्त्रास्त्र था,
भव्य भारत स्वप्न था जिनका, उन्हें यह पित्र तर्पण !
देश पर जो मर मिटे, उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !
धन्य वीरांगनायें जिनकी इतिहास स्तुति गा रहा,
गात जिनका वज्र था और हृदय कोमल अहा !
रणशिविर अट्टालिकायें, रणभूमि ही उद्यान था,
निज देश था सर्वोपरि निज भेष का न ज्ञान था,
रात्रि होती दिव्य कुंतल और दिवा फिर दिव्य दर्पण !
देश पर जो मर मिटे उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !
गणपति से ज्ञान लेकर मन से भगाया तामसी,
कृष्ण से ली कूट्नीति, धीर वीरता राम सी,
भीष्म भाँति ली प्रतिज्ञा, शिव सदृश विष को पिया,
हँसते-हँसते जन्मभूमि पर जिन्होने है किया,
तन समर्पण, मन समर्पण, और फिर जीवन समर्पण !
देश पर जो मर मिटे उनपर ये श्रद्धापुष्प अर्पण !
स्नेह सुरभित श्रंखला में है स्वागत स्नेह वंदन से.. आओ कुछ परिचय करा दूँ मेरे हृदय के स्पंदन से..!
Monday, May 7, 2007
चाँद कहीं संग चल सकता है..!
क्यों वो रात रोज़ थी आती,
नभ पर तारे छितरा जाती !
बुत बनकर तकता रहता था -
राह तुम्हारा पलकें बिछाये,
तुम आती तो-
खो जाती थी रात की स्याही,
हो जाता हर तरफ़ उजाला !
मैं इक टुक देखा करता था -
मुखड़ा तुम्हारा एक परी सा !
साथ सुना करते थे हम तुम -
साज़ रात के सन्नाटे का,
सुर रात की खामोशी का,
गीत रात की तन्हाई का !
रखकर सर मेरे काँधे पर -
जाने क्या सोचा करती थी तुम !
मैं तो भूल चुका था खुद को -
पाकर साथ तुम्हारा तब .
स्वप्न सदृश लगता था तुम्हारा -
शब्दहीन सा सर्वसमर्पण !
और अचानक एक सुबह आई...
तारे सारे नीलगगन के -
ओझल हो गये जाने कब !
छूट गया फिर साथ तुम्हारा...
टूट गया फिर हर भ्रम मेरा...
माना साथ चला करते थे -
किसने कहा जीवनसाथी थे?
भूल गया था उन्मादों में..
जीवन की कड़वी सच्चाई -
मैं सूरज सा दग्ध-तप्त,
और तुम शाश्वत शीतल कोमल...
दिन की इस तपती गरमी में
चाँद कहीं संग चल सकता है..!
नभ पर तारे छितरा जाती !
बुत बनकर तकता रहता था -
राह तुम्हारा पलकें बिछाये,
तुम आती तो-
खो जाती थी रात की स्याही,
हो जाता हर तरफ़ उजाला !
मैं इक टुक देखा करता था -
मुखड़ा तुम्हारा एक परी सा !
साथ सुना करते थे हम तुम -
साज़ रात के सन्नाटे का,
सुर रात की खामोशी का,
गीत रात की तन्हाई का !
रखकर सर मेरे काँधे पर -
जाने क्या सोचा करती थी तुम !
मैं तो भूल चुका था खुद को -
पाकर साथ तुम्हारा तब .
स्वप्न सदृश लगता था तुम्हारा -
शब्दहीन सा सर्वसमर्पण !
और अचानक एक सुबह आई...
तारे सारे नीलगगन के -
ओझल हो गये जाने कब !
छूट गया फिर साथ तुम्हारा...
टूट गया फिर हर भ्रम मेरा...
माना साथ चला करते थे -
किसने कहा जीवनसाथी थे?
भूल गया था उन्मादों में..
जीवन की कड़वी सच्चाई -
मैं सूरज सा दग्ध-तप्त,
और तुम शाश्वत शीतल कोमल...
दिन की इस तपती गरमी में
चाँद कहीं संग चल सकता है..!
एहसास
तुम्हारा एहसास है तुम नहीं-
काश के ये तुम होती..
मैं तुम्हारी आँखों में खोया रहता,
तुम मेरी बाँहों में गुम होती..
नामुमकिन तो कुछ भी नहीं था मगर-
जाने किस गली में..
उम्मीद का सूरज खो गया,
पलकें मूँदकर सो गया,
और पीछे छोड़ गया..
एक परछाई धुंधली सी -
जो चाहकर भी गिरह में आ नहीं सकती,
और जानता हूँ वो भी मुझे पा नहीं सकती,
सिर्फ़ देखती है..
सूनी सूनी आँखों से..
शायद पानी सूख चुका है..!
वरना इन पलकों में इतना सन्नाटा कभी ना था..
अभी भी मेरे नयनों की नम कोरें..
तुम्हारे वज़ूद का एहसास दिलाती हैं...
सिर्फ़ एहसास...!
काश के ये तुम होती..
मैं तुम्हारी आँखों में खोया रहता,
तुम मेरी बाँहों में गुम होती..
नामुमकिन तो कुछ भी नहीं था मगर-
जाने किस गली में..
उम्मीद का सूरज खो गया,
पलकें मूँदकर सो गया,
और पीछे छोड़ गया..
एक परछाई धुंधली सी -
जो चाहकर भी गिरह में आ नहीं सकती,
और जानता हूँ वो भी मुझे पा नहीं सकती,
सिर्फ़ देखती है..
सूनी सूनी आँखों से..
शायद पानी सूख चुका है..!
वरना इन पलकों में इतना सन्नाटा कभी ना था..
अभी भी मेरे नयनों की नम कोरें..
तुम्हारे वज़ूद का एहसास दिलाती हैं...
सिर्फ़ एहसास...!
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