आँधियों में है शिविर, कि व्योम ही वितान है ।
नवीन पंख हैं मेरे, नयी मेरी उड़ान है ॥
यहाँ चले वहाँ चले कदम मेरे जहाँ चले,
कि साथ ये ज़मीं चले कि संग आसमां चले ।
चलूँ जिधर चला चले ये दिग-दिगंत भी उधर,
निशान ढूंढते हुये तमाम कारवां चले ॥
न दीखती ही पीर है, न चाहिये ही नीर है,
किसे लगी है प्यास अब किसे यहाँ थकान है ॥
विचारता नहीं बहुत जो कस लिया कभी कमर,
निकल पड़ा कहीं अगर नहीं फ़िकर नहीं खबर ।
रुकूँ नहीं थकूँ नहीं हों चाहे जो भी मुश्किलें,
भले कठिन हों रासते या कंटकों भरी डगर ॥
रुके न चाहे वेदना, झुके कभी न चेतना
ये दंश कष्ट राह के प्रवाद के समान है ॥
मिले जो चिह्न मार्ग में यथेष्ट हैं मुझे वही,
समय न मिल सका कि मैं टटोलता ग़लत सही ।
पड़ाव है नहीं कहीं न लक्ष्य है कहीं मेरा,
नहीं अगर ये सभ्यता तो मैं सही असभ्य ही ॥
उदात्त भावना नहीं, अभीष्ट कामना नहीं
सुफल मिले या ना मिले सुकर्म में रुझान है ॥
चाहता हूँ सूर्य को मैं बाँग दे पुकार लूँ,
दिन ढले तो चाँद को ज़मीन पर उतार लूँ ।
मन कहे दिशाओं से मैं भीत माँग लूँ कभी,
और कभी हवाओं से स्वतंत्रता उधार लूँ ॥
नींद स्वप्न त्यागकर, मन वचन से जागकर
सत्व को जगा सकूँ वही मेरा बिहान है ॥
1 comment:
Wah..Wah !! What a poem Dineshji. Keep writing
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