हे छंद नज़्म हे चौपाई, सुन लो मेरा उद्गार प्रिये
तुम गीत ग़ज़ल हो या कविता, तुम ही हो मेरा प्यार प्रिये
मैं काव्यचंद्र का हूँ चकोर, मैं काव्यस्वाति का चातक हूँ
यह प्रणय निवेदन तुम मेरा, अब तो कर लो स्वीकार प्रिये
तुम मुक्तक हो उन्मुक्त कोई, या स्वरसंयोजित कोई छंद
उद्दाम लहर हो सागर की, या ठहरी-ठहरी जलप्रबंध
गाती बहलाती मन अपना, हो पिंजरबद्ध कोई पाखी
या फिर सीमाहीन गगन में, नभक्रीड़ा रत विहग वृंद
आखेट करूँ या फुसला लूँ, बोलो, क्योंकि अब तुम ही हो
मुझ जैसे आखेटक प्रेमी के, जीवन का आधार प्रिये
लिये प्रेम की पाती नभ में, ’मेघदूत’ की कृष्ण घटा सी
मयख़ारों के मन को भाई, ’मधुशाला’ की मस्त हला सी
गीतसुसज्जित कानन वन में, स्वरसुरभित चंदन के तनपर
नवकुसुमित कलियों को लेकर, लिपटी सहमी छंद लता सी
नव पाँखुरियों की मधुर गंध, छाई काव्यों के उपवन में
निज श्वास सुवासित करने का, दे दो मुझको अधिकार प्रिये
दिन में उजियारा फैलाया, बनकर संतों की सतबानी
संध्याकाल क्षितिज पर छाई, चौपाई की चुनरी धानी
प्रथम प्रहर लोरी बनकर, तुमने ही साथ सुलाया था
द्वितीय प्रहर तुम स्वप्नलोक में, विचरित मुक्तक मनमानी
तृतीय प्रहर चुपके से आकर, जो तुमने था छितराया
धवल-धवल शाश्वत शीतल, बिखरा तृण-तृण में तुषार प्रिये
कल तक इठलाती मुक्तक थी, अब खंड काव्य बनकर आई
अब चंचल बचपन बीत गया, यौवन ने ली है अंगड़ाई
चिरप्रेमी हूँ मिलना ही था, है शाश्वत प्रेम अमर अपना
पहना जब मौर मुकुट मैंने, दुलहन बनकर तुम इतराई
अक्षर, शब्दों, रस, भावों के, लाया आभूषण मैं कितने
उनमें से चुनकर कर लेना, तुम नित नूतन श्रंगार प्रिये